Saturday, June 16, 2012

संसद की स्टैंडिंग कमेटी का फरमान ---निजी कंपनियों के लिए किसान की ज़मीन लेने से बाज़ आये सरकार



शेष नारायण सिंह  

पिछले कुछ वर्षों में  किसान की ज़मीन को लेकर जनहित की योजनायें चलाने की मुद्दे  पर बहुत चर्चा हुई  है और बहुत  सारे विवाद भी होते रहे हैं. इस विवाद के कारण भूमि अधिग्रहण कानून नए सिरे से बहस के दायरे में आ  गया है .केंद्र सरकार और बहुत सारी राज्य सरकारें भी धन्नासेठों को  लाभ पंहुचाने के लिए बहुत ही उतावली नज़र आ रही हैं . पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर आम  आदमी की ज़मीन   कौड़ियों के मोल छीनकर  पूंजीपतियों के हवाले की जा रही है . जनता के गुस्से से बचने के लिए सरकार ने भी इस दिशा में क़दम उठाना शुरू कर दिया है . शायद इसी सोच का नतीजा है कि सरकार ने संसद में भूमि अधिग्रहण के लिए एक नया कानून बनाने की पेशकश की है  और लोक सभा में एक बिल पेश कर दिया.

सार्वजनिक इस्तेमाल के  लिए किसान की ज़मीन  लेने के लिए अपने देश में पहली बार सन १८९४ में  कानून बना था . अंग्रेज़ी राज में बनाए गए उस कानून में समय समय पर बदलाव किये जाते रहे और सार्वजनिक इस्तेमाल की परिभाषा बदलती रही. अपने सौ साल से ज्यादा के जीवन काल में इस कानून ने बार बार चोला बदला और अब तो एक ऐसे मुकाम तक पंहुच गया जहां सरकारें पूरी तरह से मनमाने ढंग से किसान की ज़मीन छीन सकने में सफल होने लगीं. दिल्ली के पड़ोस में उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नॉएडा में भी  उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार ने मनमाने तरीके से किसानों की ज़मीन का अधिग्रहण  किया और उसे सरकार के सबसे ऊंचे मुकाम  पर बैठे कुछ लोगों को आर्थिक लाभ पंहुचाने के लिए सरकार ने मनमाने दाम पर बेच दिया . अपनी ही ज़मीन को लूट का शिकार होते देख किसानों ने हाई कोर्ट का रास्ता पकड़ा . न्याय पालिका के हस्तक्षेप के बाद सरकारी मनमानी पर लगाम लगी . किसानों की ज़मीन पर निजी कंपनियों के लाभ के लिए सरकारी तंत्र द्वारा  क़ब्ज़ा करने की कोशिशों को मीडिया के ज़रिये सारी दुनिया के सामने उजागर किया गया और  ग्रेटर नॉएडा के भट्टा पारसौल में पुलिस ज्यादती को  बहस के दायरे में लाया गया. सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता भट्टा पारसौल में हाजिरी लगाने पंहुचे और निजी लाभ के लिए किसान की ज़मीन के अधिग्रहण की समस्या पर व्यापक चर्चा हुई. उसके बाद सरकार की नींद भी खुली और १८९४ वाले भूमि अधिग्रहण  कानून को बदलने की बात शुरू हुई.  इसी सिलसिले में केंद्र सरकार ने ७ सितम्बर २०११ को लोक सभा में  लैंड एक्वीजीशन , रिहैबिलिटेशन एंड रिसेटिलमेंट बिल २०११ पेश किया . बिल में नौकरशाही  के बहुत सारे लटके झटके हैं. ज़मीन को लेने के लिए सरकारी मनमानी को रोकने के लिए बनाए गए इस   बिल में   में वे सारी बातें हैं जो सरकारी अफसर की मनमानी के पूरे अवसर उपलब्ध करवाती हैं .इस बिल को ग्रामीण विकास मंत्रालय ने तैयार किया है .  आजकल ग्रामीण विकास मंत्रालय के मंत्री बहुत ही सक्षम व्यक्ति हैं . अर्थशास्त्र के विद्वान हैं और ग्रामीण विकास को  सामाजिक  प्रगति की सर्वोच्च प्राथमिकता मानते हैं लेकिन उनका अर्थशास्त्र वही वाला है जिसके पुरोधा अपने देश में डॉ मनमोहन सिंह हैं . उस अर्थशास्त्र में  ऊपर वालों की सम्पन्नता के लिए नियम कानून बनाए जाते हैं .  गरीब आदमी की तरक्की के लिए कोई कार्यक्रम नहीं तैयार किया जाता है . उस अर्थशास्त्र में गरीबी हटाने  का तरीका यह है कि   पूंजीपति की सम्पन्नता को सरकार बढायेगी और उसी की सम्पन्नता  को  बढाने में आम आदमी अपनी मेहनत के ज़रिये  योगदान देगा .  उसे जो मेहनताना मिलेगा वही काफी माना जाएगा . लैंड एक्वीजीशन , रिहैबिलिटेशन एंड रिसेटिलमेंट बिल २०११  में इसी सोच के नज़ारे देखे जा सकते हैं. शायद इसी कमी को ठीक करने के लिए इस बिल को   ग्रामीण विकास मंत्रालय से सम्बंधित स्थायी समिति के पास विचार के लिए भेज  दिया गया.  इस सामिति की अध्यक्ष इंदौर की सांसद सुमित्रा महाजन  हैं .  समिति के सदस्यों में  ऐसे लोगों के नाम हैं जिनमें से कुछ को ग्रामीण विकास का विद्वान माना जाता है. इस कमेटी में मोहन सिंह,मणि शंकर अय्यर, संदीप दीक्षित और सुप्रिया  सुले जैसे लोग हैं  जिनको किसी तरह की नौकरशाही टाल नहीं  सकती. संसद की स्थायी समिति के पास इतनी ताक़त होती है  कि वह सरकार की तरफ  से पेश किये गए किसी भी बिल को पूरी तरह से रद्द भी कर सकती है . बहरहाल केंद्र सरकार की तरफ से लोक सभा में पेश किये गए बिल में बहुत खामियां थीं और अब उसे स्थायी समिति ने ठीक कर दिया है . बजट सत्र के अंतिम दिनों में इस समिति की रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में रखी गयी . सरकार को   लैंड एक्वीजीशन , रिहैबिलिटेशन एंड रिसेटिलमेंट बिल २०११  को स्थायी समिति की सिफारिशों को ध्यान में रख कर दुरुस्त करना पडेगा और फिर संसद के किसी सत्र में उसे पेश करना पडेगा . जानकार बताते हैं कि अगर सरकारी अफसरों ने संशोधित बिल में भी कुछ उल्टा सीधा प्रावधान डालने की कोशिश की तो मामला फिर स्थायी समिति के  पास भेजा जा सकता है . लेकिन उम्मीद की जा रही है कि संसद की इस ताक़तवर कमेटी की बात को सरकार  मान लेगी और एक सही कानून बनाने की कोशिश करेगी .अगर सरकार नहीं मानती तो संसद की स्थायी कमेटी के पास ऐसे अधिकार हैं वह दुबारा भी सरकारी  बिल को रद्दी की टोकरी में डाल दे और सरकार को फटकार लगाए कि सही कानून बनाने के लिए उपयुक्त बिल संसद में लाया जाए.
भूमि अधिग्रहण के नए कानून के लिए पेश किये गए  बिल में सुधार के लिए   संसद की स्थायी समिति  ने  जो सुझाव दिए हैं वे बहुत ही  महत्वपूर्ण  हैं . कमेटी ने केंद्र सरकार के उस सुझाव को खारिज कर दिया है जिसमें कहा गया था कि निजी कंपनियों के मुनाफे में वृद्धि करने के लिए जब ज़मीन का अधिग्रहण होता है तो उस से राष्ट्र की संपत्ति में वृद्धि होती है .स्थायी समिति ने साफ़ कह दिया है कि सरकार को निजी कंपनियों के लिए ज़मीन का अधिग्रहण नहीं करना चाहिए .कमेटी  ने यह भी कहा है कि भूमि अधिग्रहण कानून १८९४ को पूरी तरह से बदल देने की ज़रुरत है .इस कानून में सार्वजनिक इस्तेमाल की परिभाषा ऐसी है जो कि सरकारों को मनमानी करने का पूरा अधिकार देती है .. जिसकी ज़मीन  अधिग्रहीत की जाती है उसको मुआवजा देने के नियम भी प्राचीन हैं और  वे सरकारों को लूट का पूरा अधिकार देते हैं . इन दोनों ही प्रावधानों को बदल देने की  सिफारिश  स्थायी समिति ने की  है .. जब १८९४ में कानून बना था तो  व्यवस्था की गयी थी कि ज़मीन का  अधिग्रहण  केवल सरकारी परियोजनाओं के लिए ही किया जाएगा . लेकिन इस प्रावधान में पिछले सौ साल में इतने परिवर्तन किये गए कि सरकारों के पास किसी भी काम के लिए , किसी भी कंपनी को लाभ पंहुचाने  के लिए  ज़मीन के अधिग्रहण के अधिकार आ गए. जब से डॉ मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र ने देश के विकास का ज़िम्मा लिया तब से तो हद ही  हो गयी . स्पेशल इकनामिक ज़ोन के नाम पर लाखों एकड़ ज़मीन किसानों से छीन कर उद्योगपतियों को थमा देने का रिवाज़ शुरू हो गया. सरकार ने जो नया बिल पेश किया है उसमें मुआवजा तो बढ़ा दिया गया है लेकिन जनहित की  परिभाषा बहुत ही घुमावदार रखी गयी है और सरकार अभी भी अपनी जिद पर कायम है कि निजी कंपनियों के लिए किसानों की ज़मीन लेने में सरकार संकोच नहीं करेगी. केंद्र सरकार के पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों  , डॉ मनमोहन सिंह . मान्टेक  अहलूवालिया और जयराम रमेश के आर्थिक चिंतन का कुछ राज्य सरकारों ने विरोध करना शुरू भी कर दिया है. उत्तर प्रदेश के  मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने साफ़ कह दिया है कि वे निजी कंपनियों के  इस्तेमाल के लिए किसानों की ज़मीन का अधिग्रहण नहीं करेगें.उनकी इस मंशा को संसद की स्थायी कमेटी की मंजूरी मिली हुई है .
लैंड एक्वीजीशन , रिहैबिलिटेशन एंड रिसेटिलमेंट बिल २०११ में प्रावधान है कि भूमि अधिग्रहण करने  के लिए ग्राम सभा से सलाह ली जायेगी . कमेटी ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है और साफ़ कह दिया है कि  भूमि अधिग्रहण के लिए ग्राम सभा से सलाह लेना काफी नहीं है . ज़रूरी यह है कि ग्राम सभा की  सहमति के बिना कोई भी ज़मीन अधिग्रहीत न की जाए.ज़मीन की कीमत तय करने के लिए भी सरकारें मनमानी करती पायी गयी हैं . उत्तर प्रदेश में ही पिछली सरकार ने ज़मीन की कीमत इतनी कम  तय कर रखी थी कि  जब उसी ज़मीन को किसानों को दिए गए मुआवज़े से कई गुना ज्यादा दाम पर बिल्डरों को दिया जाता था ,तो भी  वह ज़मीन सस्ती ही पड़ती थी. यहाँ तक कि उस ज़मीन को ग्रेटर नॉएडा अथारिटी से अलाट करवाने के लिए बिल्डर पूर्व  मुख्यमंत्री के भाई के करीबी लोगों को खासी रक़म बतौर रिश्वत देता था. इसलिए संसद की  कमेटी ने सुझाव  दिया है कि ज़मीन की कीमत मनमाने तरीके से तय करने से सरकारें बाज़ आयें . उसके लिए कई सदस्यों का एक कमीशन बनाया जाय जिसकी राय  मानना सरकारों के लिए अनिवार्य हो. उत्तर प्रदेश के बहुत सारे ज़िलों में  अफसर जल्दी के चक्कर में  अर्जेंट बताकर ज़मीन अधिग्रहीत कर लेते हैं . ग्रेटर नॉएडा में जो ज़मीन कोर्ट की निगरानी में है, उसमें भी  यही हालत है .  कमेटी ने कहा है  कि केवल राष्ट्रीय सुरक्षा या रक्षा के लिए ही अर्जेंट  तरीके से ज़मीन का अधिग्रहण किया जा सकता है. और अगर उनके इस्तेमाल से ज़मीन बच  जाती है तो उसे किसान को वापस कर दिया  जाना चाहिये .
 संसद की ताकत के सामने सरकारी अफसर , बिल्डर और नेताओं की साज़िश की  शक्तियां फिलहाल कमज़ोर पड़ रही  हैं. यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार संसद की मर्जी से कम करती है या मनमानी करने के लिए कोई नया तरीका निकालती है.

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