Tuesday, May 1, 2018

ऐसा समाज बने जिसमें बलात्कार करने की कोई हिम्मत न कर सके




शेष नारायण सिंह


आजकल चारों तरफ से कम उम्र की लड़कियों के साथ बलात्कार की घटनाएं सामने आ रही हैं. कठुआ में तो इंसानी दरिन्दगी सभी हदें पार कर दी गयी. इंदौर से खबर आई है कि एक आदमी ने छ माह की एक  बच्ची के साथ दरिन्दगी की है . आज के अखबार के एक पूरे पन्ने पर लड़कियों के साथ हुयी हैवानियत की ख़बरें भरी हुई हैं.  कठुआ के मामले में तो पूरी दुनिया में सभ्य समाजों में  लोग हैरान रह गए जब पता चला कि कुछ वकील तिरंगा हाथ में लेकर बलात्कारियों के पक्ष में खड़े हो गए.  बलात्कारी के धर्म की बातें भी सामने आने लगीं . बिहार में एक मौलवी द्वारा की गयी वारदात को बहस के दायरे में लाने की मांग भी एक ख़ास पार्टी के लोग उठाने लगे .उन लोगों को यह बात पक्के तौर पर बता दिए जाने की ज़रूरत है कि दरिन्दगी करने वालों का  एक ही धर्म होता है और वह धर्म है  दरिन्दगी. दरिन्दे को हिन्दू या मुसलमान कहना उचित नहीं है . 

रेप की जो खबरें आ रही  हैं , उनमें एक अजीब बात देखने को मिल रही है . सत्ताधारी जमातें  बलात्कार के खिलाफ हो रहे आन्दोलन को अपने खिलाफ आन्दोलन मान रही हैं . ऐसा नहीं है . सच्ची बात यह है कि आन्दोलन हैवानियत के खिलाफ हैं और जो भी उन हैवानों के साथ खड़ा है उनके खिलाफ हैं . इसलिए बलात्कार जैसे मामलों में राजनीति तलाशने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए . सरकारी पार्टी के कुछ लोग इसी मानसिकता के चलते कठुआ जैसी घटना पर अजीबोगरीब बयान दे रहे थे . लेकिन विदेश यात्रा पर गए प्रधानमंत्री ने जब पूरी दुनिया में कठुआ की वारदात पर ग़मो-ओ-गुस्से का इजहार करते लोगों को देखा तो उनको अंदाज़ लगा कि मामला अब पूरी दुनिया में फैल चुका है . विदेश यात्रा से लौटने के दो घंटे के अन्दर कैबिनेट की बैठक बुलवाई और एक अध्यादेश का मसौदा पास कर दिया गया जिसके तहत बारह साल से कम उम्र की बच्ची से बलात्कार करने वाले को सज़ा-ए-मौत दी जायेगी . उसकी ज़मानत नहीं होगी और चार महीने के अन्दर सज़ा  सुना दी जायेगी .

 कानून में ऐसे इंतजामात किये जाने चाहिए जिससे  अपराधी को मिलने वाली सज़ा को देख कर भविष्य में किसी भी पुरुष की हिम्मत न पड़े कि बलात्कार के बारे में कोई सोच भी सके. लेकिन कोई भी नया कानून बनाने के पहले बहुत ही सोच विचार करने की ज़रूरत होती  है . कहीं ऐसा तो नहीं कि आम जनमत के दबाव से घबडाकर सरकार कोई ऐसा क़ानून  बना दे जिस से वह फायदा  न हो जिसके लिए वह कानून बनाया गया है . जब  दिसंबर २०१२ में निर्भया के साथ बलात्कार हुआ था तो इसी तरह के कुछ नियम बनाये गए थे . उस घटना के बाद सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जस्टिस जे एस वर्मा  की अगुवाई में एक कमेटी बनाई थी .उस कमेटी ने बच्चियों के साथ  होने वाले बलात्कार के कानून में ज़रूरी बदलाव के सुझाव दिए थे. जस्टिस वर्मा  कमेटी के  वक़्त भी निर्भया के कसके बाद का गुस्सा पूरे देश में  था और बलात्कारी को मौत की सज़ा देने की बात हर कोने से उठ  रही थी लेल्किन अपनी रिपोर्ट में जस्टिस वर्मा कमेटी ने लिखा था  कि '" कानूनी सुधार और सज़ा के संदर्भ में मृत्युदंड एक  प्रतिगामी क़दम होगा " कमेटी ने बलात्कार के मामलों में सज़ा बढाकर आजीवन कारावास करने  की सिफारिश की थी .उन्होंने उसी रिपोर्ट में लिखा था कि इस बात के बहुत सारे सबूत मौजूद हैं जिससे यह साबित किया जा सके कि बहुत ही गंभीर अपराधों के लिए मौत की सज़ा के प्रावधान से वह नतीजे नहीं निकलते  जिनकी उम्मीद लगाकर कानून में उसकी व्यवस्था की गयी थी .आम तौर पर माना जाता है कि मृत्युदंड की व्यवस्था होने के बाद बलात्कार के अपराधों को दबा देने की प्रवृत्ति जोर पकड़ेगी थी  .


 जब कैबिनेट ने पास कर दिया है  तो अध्यादेश की घोषणा तो हो ही जायेगी लेकिन ज़रूरत  इस बात की है कि बलात्कार करने वालों सुर संभावित बालात्कारियों की मानसिकता को बदला जाए  .  इसके लिए सामाजिक सुधार के आन्दोलन की बात शुरू की जानी चाहिए . उस समाज के खिलाफ सभ्य समाज को लामबंद होने की ज़रूरत है जो लडकी को इस्तेमाल की वस्तु साबित करता है  और उसके साथ होने वाले बलात्कार को भी अपनी शान में गुस्ताखी मान कर सारा काम करता है . वहीं दूसरा पक्ष लडकी के साथ बलात्कार करके अपने विरोधी को सज़ा देने की सोचता है . उन्नाव की रेप और ह्त्या की बात इसी खांचे में  फिट बैठती है .हमें एक ऐसा समाज  चाहिए जिसमें लडकी के साथ बलात्कार करने वालों और उनकी मानसिकता की हिफाज़त करने वालों के खिलाफ लामबंद होने की इच्छा हो और ताक़त हो.
उस मानसिकता के खिलाफ जंग  छेड़ने की ज़रूरत है जिसमें लडकी को वस्तु मानते हैं .. इसी मानसिकता के चलते इस देश में लड़कियों को दूसरे दरजे का इंसान माना जाता है और उनकी इज्ज़त को मर्दानी इज्ज़त से जोड़कर देखा जाता है . लडकी की इज्ज़त की रक्षा करना पुरुष समाज का कर्त्तव्य माना जाता है . यह गलत है . पुरुष कौन होता है लडकी की रक्षा करने वाला . ऐसी शिक्षा और माहौल बनाया जाना चाहिए जिसमें लड़की खुद को अपनी रक्षक माने . लड़की के रक्षक के रूप में पुरुष को पेश करने की  मानसिकता को जब तक खत्म नहीं किया जाएगा तह तक कुछ भी नहीं बदलेगा  जो पुरुष समाज अपने आप को महिला की इज्ज़त का रखवाला मानता है वही पुरुष समाज अपने आपको यह अधिकार भी दे देता है कि वह महिला के  यौन जीवन का संरक्षक  और उसका उपभोक्ता है . जो पुरुष अपने आपको महिला का रक्षक बनाता फिरता है वह उसके साथ ज़बरदस्ती करने में भी संकोच नहीं करेगा. शिक्षा और समाज की बुनियाद में ही यह भर देने की ज़रूरत है कि पुरुष और स्त्री बराबर है और कोई किसी का रक्षक नहीं है. सब अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं. बिना बुनियादी बदलाव के बलात्कार को हटाने की कोशिश वैसी  ही है जैसे किसी घाव पर मलहम लगाना . हमें ऐसे एंटी बायोटिक की तलाश करनी है जो शरीर में ऐसी शक्ति पैदा करे कि घाव होने की नौबत ही न आये. कहीं कोई बलात्कार ही न हो . उसके लिए सबसे ज़रूरी बात यह है कि महिला और पुरुष के बीच बराबरी को सामाजिक विकास की आवश्यक शर्त माना जाए.

लडकी और लड़के में बराबरी की भावना  लाने के लिए सरकार को दखल देना चाहिए और समाज की कुरीतियों को ख़त्म करना चाहिए .लड़कियों को खुदमुख्तार बनाने के लिए राजनीतिक कदम उठाये जाने चाहिए . महिलाओं को राजनीतिक आरक्षण देने की बात तो की जा रही है लेकिन सरकारी नौकरियों में इन्हें आरक्षण देने की बात कहीं नहीं कही जा रही है . महिलाओं को समाज में और राजनीति में सम्मान देने का एक ही तरीका है कि उनको देश और समाज के साथ साथ अपने बारे में फैसले लेने के अधिकार दिए जाएँ . अगर ऐसा न हुआ तो महिलायें पिछड़ी ही रहेगीं और जब तक पिछड़ी रहेगीं उनका शोषण हर स्तर पर होता रहेगा. बलात्कार महिलाओं  को कमज़ोर रखने और उनको हमेशा पुरुष के अधीन बनाए रखने की मर्दवादी सोच का नतीजा है . राजनीतिक पार्टियों पर इस बात के  लिए दबाव बनाया जाना चाहिए कि ऐसे क़ानून बनाएँ जिस से महिला और पुरुष  बराबरी के अधिकार के साथ समाज के भविष्य के फैसले लें और भारत को एक बेहतर देश के रूप में सम्मान मिल सके

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