Tuesday, May 1, 2018

२०१९ में तीसरे मोर्चा बना तो बीजेपी को फायदा और कांग्रेस को नुक्सान होगा



शेष नारायण सिंह  


कांग्रेस को अपना अस्तित्व बचाने के लिए तीसरे मोर्चे की राजनीति को आगे बढ़ने से रोकना पडेगा वरना एक पार्टी के रूप में  उनके लिए मुश्किल हो जायेगी . कांग्रेस अध्यक्ष के आस पास  मंडराने वाले वर्ग में  ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो १९८० और १९८५ का अपनी पार्टी का बहुमत भूल ही नहीं पाते. वह दौर ऐसा था जब इंदिरा गांधी या राजीव गांधी जिसकी तरफ भी इशारा कर देते थे ,वह मुख्यमंत्री हो जाता था. लेकिन अब वह ज़माना नहीं है . राहुल गांधी के करीबी लोग अमरिंदर सिंह को पंजाब का मुख्यमंत्री नहीं बनने देना चाहते थे लेकिन उन्होंने दिल्ली के दरबारी कांग्रेसियों को समझा दिया कि पंजाब में सबसे बड़े कांग्रेसी वही हैं . आजकल कर्नाटक में भी वही पंजाब फार्मूला अपनाया जा रहा है . सिद्दरमैया ने पांच साल में यह स्थापित कर दिया  है कि उनको ही नेता मानना पडेगा . अभी चुनाव प्रचार चल रहा  है लेकिन जो भी कर्नाटक की राजनीति  को देख रहा  है ,उसको मालूम है कि सिद्दरमैया को नेता मानकर चलने की कांग्रेस की नीति विपक्ष पर भारी पड़ रही है . इसी साल के अंत तक राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी चुनाव होने  हैं . दोनों ही राज्यों के मुख्यमंत्री बहुत ही अलोकप्रिय हैं और वहां कांग्रेस की जीत की संभावना बताई जा रही है . इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस अध्यक्ष अपने बचपन के दोस्तों को मुख्यमंत्री बनाने की जुगत में लग गए हैं.  दोनों ही राज्यों में कांग्रेस नेतृत्व वही करना चाह रहा है जो  १९८० और १९८९ के बीच किया जाता था . लेकिन उनको ध्यान रखना पड़ेगा कि अब बीजेपी एक बहुत ही बड़ी राजनीतिक पार्टी है और वह अपनी जीत के बाद जीत को पक्का करती जा रही है . जहाँ थोडा कमज़ोर भी पड़ती है ,वहां भी सरकार बना रही है . ऐसी हालत में कांग्रेस को राष्ट्रीय राजनीति और अपनी आन्तरिक राजनीति में मनमानी करने से बाज  आना पडेगा , वरना कांग्रेस मुक्त भारत का प्रधानमंत्री के सपना साकार हो  सकता है और उसमें सबसे बड़ा योगदान मौजूदा  कांग्रेस आलाकमान की बचकानी गलतियों का ही होगा.
आज बीजेपी एक बहुत  बड़ा दल है .  बीजेपी के रणनीतिकार यह मानकर चल रहे हैं कि उनको कांग्रेस को ही पछाड़ना है , बाकी पार्टियां तो   क्षेत्रीय पार्टियां हैं , उनको संभाल लिया जाएगा . अगर  कांग्रेस  हर राज्य में अपने लिए मुख्य भूमिका की तलाश करती रहेगी तो बीजेपी को बहुत  आसानी होगी. बीजेपी की योजना का  हिस्सा  है कि कांग्रेस को अन्य क्षेत्रीय दलों से मिलकर चुनाव न लड़ने दिया जाए. इसीलिये बीजेपी के वफादार क्षेत्रीय दलों के नेता तीसरे मोर्चे की बात करते देखे जा रहे हैं  . अभी कल तक बीजेपी के बड़े सहयोगी रहे , चंदबाबू नायडू  गैर कांग्रेसी ,गैर बीजेपी विकल्प की बात करते पाए जा रहे हैं . कोशिश यह है कि २०१९ में सभी मज़बूत क्षेत्रीय दल कांग्रेस से  दूरी बनाकार चुनाव लड़ें. अगर ऐसा हुआ तो बीजेपी को बहुत फायदा होगा.  क्षेत्रीय दल जहां  भारी पडेगा ,वहां चुनाव जीत लेगा और कांग्रेस के खिलाफ सभी मैदान में होंगें तो कांग्रेस ख़त्म हो जाएगी .  ऐसी स्थिति को बचाने का काम कांग्रेस के राजनीतिक भविष्य से जुड़ा है .कांग्रेस के  पास केवल एक तरीका है कि वह यह स्वीकार कर ले कि देश के एक बहुत बड़े हिस्से में उसकी  भूमिका केवल सहयोगी दल की हो गयी है . एक समय था जब  उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का एकछत्र राज हुआ करता था लेकिन आज स्थिति यह है कि अगर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी उसको मदद न करें तो उनके लिए अमेठी और राय बरेली में चुनाव जीतना भी पहाड़ हो जाएगा .इसलिए उत्तर प्रदेश और बिहार में अगर कांग्रेस को बीजेपी का विरोध  कर रही पार्टियों का सहयोगी बनने का मौक़ा मिलता है तो उनको खुश होना चाहिए .
विपक्ष के क्षेत्रीय नेताओं की मालूम है कि गैर कांग्रेस ,गैर बीजेपी विकल्प की बात बीजेपी  को ही फायदा   देगी इसलिए ऐसे किसी राजनीतिक इंतज़ाम की बात नहीं करनी चाहिए . ममता बनर्जी आजकल  सभी विपक्षी पार्टियों को यह समझाती फिर रही हैं कि बीजेपी के मुकाबले केवल एक मज़बूत  उम्मीदवार उतारा जाए. जिन राज्यों में जो पार्टी मज़बूत है वह  नेतृत्व करे और कांग्रेस  समेत बाकी पार्टियां उसकी अगुवाई स्वीकार करें . द्रविड़ मुन्नेत्र  कजगम के नेता, एम के स्टालिन ने ममता बनर्जी की सोच का समर्थन कर दिया है . उन्होंने एक ट्वीट में  कहा कि , ' डी एम  के हमेशा से ही क्षेत्रीय पार्टियों की एकता की बात करती रही है .मैं ममता बनर्जी की उन कोशिशों को सही मानता हूँ जिसमें वे बीजेपी को चुनौती देनी के लिए सबसे मज़बूत क्षेत्रीय पार्टी को अगुवाई देने की बात करती  हैं . 'लेकिन इसके बाद ही डी एम के के प्रवक्ता एस मनु का बयान आ गया जिससे साफ़ हो गया कि उनकी पार्टी ऐसे किसी भी प्रयास में कांग्रेस  को नज़रंदाज़ नहीं करना चाहती . ममता बनर्जी को कांग्रेस से दिक्क़त है क्योंकि बंगाल में उनकी लड़ाई कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट से है .

विपक्ष के नेताओं को विश्वास है कि देश में बीजेपी के खिलाफ माहौल बन रहा है और उसमें कांग्रेस को अपनी अस्मिता बचाते हुए बीजेपी को  शिकस्त देने की रणनीति पर काम करना पडेगा . अगर काँग्रेस उत्तर प्रदश , बिहार, बंगाल, तमिलनाडु आदि राज्यों में बड़ा भाई बनने की  कोशिश की तो बीजेपी का रास्ता बहुत ही आसान हो  जाएगा . और अगर कांग्रेस ने अपनी मजबूती वाले राज्यों में अपने आपको  संभाल लिया और उन राज्यों में जहाँ वह कमज़ोर है ,सहयोगी भूमिका पकड़ ली तो बीजेपी के लिए २०१९ बहुत मुश्किल भरा  हो जाएगा.लेकिन अगर तीसरे मोर्चे की बात चल निकली तो बीजेपी को रोकना असंभव हो जाएगा .

इस सन्दर्भ में यह साफ़ होना बहुत ज़रूरी है कि कांग्रेस अपने लिए क्या भूमिका  तय  करती है . भारत की राजनीति में कांग्रेस का ऐतिहासिक महत्व है .महात्मा गांधी ने १९२० में कांग्रेस को जन संगठन बनाने में अहम भूमिका निभाई . उसके पहले कांग्रेस का काम अंग्रेजों के उदारवाद के एजेंट के रूप में काम करना भर था .बाद में कांग्रेस ने आज़ादी की लड़ाई में देश का नेतृत्व किया. महात्मा गांधी खुद चाहते थे  कि आजादी मिलने के बाद कांग्रेस को चुनावी राजनीति से अलग करके जनान्दोलन  चलाने वाले संगठन के रूप में ही रखा जाए . चुनाव में शामिल होने के इच्छुक राजनेता अपनी अपनी पार्टियां बनाकर चुनाव  लड़ें लेकिन कांग्रेस के उस वक़्त के बड़े नेताओं ने ऐसा नहीं होने दिया .उन्होंने कांग्रेस को जिंदा रखा और आज़ादी के बाद के कई वर्षों तक राज  किया. बाद में जब डॉ राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेस वाद की  राजनीति के प्रयोग शुरू किया तो कांग्रेस को बार बार सत्ता से  बेदखल होना पड़ा. १९८९ में  गैर कांग्रेस वाद की भी पोल खुल गयी जब बाबरी मस्जिद के  विध्वंस के लिए चले आंदोलन में कांग्रेस और बीजेपी साथ  साथ खड़े नज़र आये. १९९२ में अशोक सिंहल,कल्याण सिंह और पी वी  नरसिम्हाराव के संयुक्त प्रयास से बाबरी मस्जिद ढहाई गयी लेकिन उसके पहले ही बीजेपी और कांग्रेस  का वर्गचरित्र सामने आ गया था. पूर्व प्रधान मंत्री चन्द्र शेखर ने लोक सभा के अपने ७ नवंबर १९९० के भाषण में इस बात का विधिवत पर्दाफ़ाश कर दिया था. उस भाषण में चन्द्रशेखर जी ने कहा कि धर्म निरपेक्षता मानव संवेदना की पहली परख है .  जिसमें मानव संवेदना नहीं है उसमें धर्मनिरपेक्षता नहीं हो सकती."
इसी के बाद तीसरे मोर्चे की बात जोर पड़ने लगी .१९९६ में गैर कांग्रेस गैर बीजेपी सरकार की बात चली तो एच डी देवे गौड़ा को प्रधान मंत्री बनाने वाली पार्टियों के गठबंधन को तीसरा मोर्चा नाम दे दिया गया था.लेकिन कोई ऐसी राजनीतिक शक्ति नहीं बनी थी जिसे तीसरे मोर्चे के रूप में पहचाना जा सके.

वास्तव में तीसरा मोर्चा एक राजनीतिक असम्भावना  है.यह सत्ताधारी दलों की उस  कोशिश का नाम है जिसको वे विपक्ष को एक होने  से रोकने के लिए इस्तेमाल करती हैं. कांग्रेसी राज के दौर में कांग्रेस की कोशिश रहती थी कि तीसरा मोर्चा की बात चलती रहेगी तो विपक्ष को एकजुट होने का मौक़ा नहीं लगेगा .अब  बीजेपी की   इच्छा है कि तीसरा मोर्चा बने और उसको  विपक्षी के रूप में कांग्रेस और तीसरा मोर्चा का मुकाबला करना पड़े. यह तय  है कि राहुल गांधी की  कांग्रेस सत्ताधारी बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती नहीं दे सकती .लेकिन बीजेपी को चुनौती मिलेगी ज़रूर उसके लिए कांग्रेस को आज की सच्चाई कोसंझ्ना पडेगा और  जिन राज्यों में वह मज़बूत है ,उसके बाहर एक मुख्य पार्टी नहीं सहयोगी पार्टी की  भूमिका निभानी पड़ेगी.
फूलपुर और गोरखपुर उपचुनावों एक बाद साफ़ हो गया है कि  अगर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी  एक साथ मिलकर चुनाव लड़ेगें तो उत्तर प्रदेश से बीजेपी के उतने सांसद नहीं जीतेंगें जितने २०१९ में जीते थे. . एक बात और सच है कि इन दोनों ही चुनावों में कांग्रेस की औकात रेखांकित हो गयी है . यह तय है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की चुनावी हैसियत  नगण्य है. जिस फारमूले से यह दोनों उपचुनाव  विपक्ष ने जीता है ,  समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अगर सीटों का तालमेल कर लिया तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी को बड़ा घाटा हो सकता है . यही हाल बिहार का भी है . बिहार में भी बीजेपी को कांग्रेस से कोई चुनौती नहीं मिलने वाली है . कांग्रेस की वहां भी स्थिति उत्तर प्रदेश जैसी ही है . लालू यादव की पार्टी वहां बीजेपी की मुख्य मुसीबत बनेगी . ओडीशा में  भी बीजेपी का मुकाबला वहाँ के लोकप्रिय मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से होगा . वहां कांग्रेस को मुख्य विपक्षी दल के रूप में चुनाव लड़ना पडेगा. ज़ाहिर है अपनी राजनीतिक हैसियत बनाये रखने के लिए कांग्रेस के सामने और कोई विकल्प नहीं है लेकिन रणनीतिक गठजोड़ तो हो ही सकता है .


कांग्रेस पार्टी को कर्नाटक, मध्य प्रदेशराजस्थान ,पंजाब , महाराष्ट्र ,गुजरात और कश्मीर में अग्रणी भूमिका की बात करनी चाहिए  जबकि उत्तर प्रदेश ,बिहारआंध्र प्रदेश ,तेलंगानातमिलनाडु,में  क्षेत्रीय पार्टियां बीजेपी को दिल्ली की सत्ता तक पंहुचने से रोक सकती हैं . केरल और बंगाल में कांग्रेस को अपनी भूमिका को फिर से परिभाषित करना पडेगा .

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